Nafas ki gazlen

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Saturday, March 14, 2009

दर्द  सहने   का  कोई   अहद  उठा   रक्खा है ?
क्यूँ  चरागों  को   हथेली  पे  जला  रक्खा  है ?

ज़ख्म भरने  से  कहीं  और  न  ग़म  बढ़ जाएँ
हमने  ज़ख्मों  को  इसी डर  से खुला रक्खा है

उस परीरुख की  नज़र से  ज़रा बच कर रहना
उसने हर  तीर ए नज़र  ज़हर  बुझा  रक्खा है

रुख हवाओं का दिखाने  के  लिए  ज़ालिम ने
फाड़  कर  ख़त  मिरा  पुर्ज़ों  में उड़ा  रक्खा है

घर की  दहलीज़ पे बेहिस क्यूँ खड़े हो आख़िर
किसकी  उम्मीद  पे  दरवाज़ा  खुला रक्खा है

ज़िन्दगी हम पे कोई वक़्त का कर्ज़ा है 'नफ़स'
एक  एहसाँ   है  जो  मुद्दत  से  उठा  रक्खा  है

درد  سہنے  کا  کوئی  عہد  اٹھا  رکّھا  ہے
کیوں چراغوں  کو ہتھیلی  پہ سجا رکھا ہے

زخم بھرنے سے کہیں اور نہ غم بڑھ جاہیں
ہم نے زخموں کو اسی ڈر سے کھلا 
رکّھا ہے

اس پری رخ  کی  نظر سے ذرا  بچ کر رہنا
اس  نے  ہر  تیرنظر  زہر  بجھا  
رکّھا  ہے

رخ  ہواؤں  کا  دکھانے  کے  لئے ظالم نے
پھاڑ کر  خط مرا پرظوں میں اڑا 
رکّھا ہے

گھر کی 
دہلیز پہ بےحس کیوں کھڑے ہو آخر
کس  کی  امید  پہ  دروازہ   خلا  
رکّھا  ہے

زندگی  ہم  پہ  کوئی وقت کا قرضہ ہے نفس
ایک احساں ہے جو مدّت سے اٹھا 
رکّھا  ہے

3 comments:

  1. dear nafas sahib bahut khoob. dard is always a precious and persona possetion.

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  2. na koi dard jigar mein na zakhm seene mein,
    ye lazzaten thin kahan ab se pahle jeene mein.

    Shukria Dr. Vinod. Keep visiting.

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  3. bahot khoob.. makta bahot pasand aya.
    likhte rahiye janab..

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