G ग़ज़ल
अजब क्या गर वो झूठे चाँद तारे बेचते हैं
सियासत में तो ये सामान सारे बेचते हैं
हमें ऐसी तरक्क़ी से कोई निस्बत नहीं है
जहाँ फुटपाथ पर बच्चे ग़ुबारे बेचते हैं
बहुत मुमकिन है वो दरिया भी इक दिन बेच डालें
सियासत में तो ये सामान सारे बेचते हैं
हमें ऐसी तरक्क़ी से कोई निस्बत नहीं है
जहाँ फुटपाथ पर बच्चे ग़ुबारे बेचते हैं
बहुत मुमकिन है वो दरिया भी इक दिन बेच डालें
अभी जो लोग दरिया के किनारे बेचते हैं
ये सारा शहर बेआवाज़ हो कर रह गया है
हम इस गूंगों की बस्ती में इशारे बेचते हैं
ये कैसा मोजज़ा है हर ग़ज़ल शीरीं है अपनी
हम अपनी आँख के आँसू तो खारे बेचते हैं
सुख़न हरगिज़ मुनाफ़े का कोई सौदा नहीं है
यहाँ बाज़ार के ताजिर ख़सारे बेचते हैं
शब्दार्थ :
निस्बत - सम्बन्ध, शीरीं - मीठा, सुख़न - शायरी
ताजिर - व्यापारी, ख़सारे - घाटा
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