Nafas ki gazlen

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Thursday, June 14, 2012

यूँ तो खुद अपने ही साए से भी डर जाते  लोग
हादसे कैसे भी  हों लेकिन  गुज़र जाते हैं लोग 

जब  मुझे  दुश्वारियों  से  रूबरू  होना  पड़ा  
तब मैं समझा रेज़ा रेज़ा क्यूँ बिखर जाते हैं लोग 

सिर्फ़  ग़ाज़ा  ही नहीं चेहरों की रानाई का राज़ 
शिद्दत-ए-ग़म की तपिश में भी निखर जाते हैं लोग 

मसअले आ कर लिपट जाते हैं बच्चों की तरह
शाम को जब लौट कर दफ़्तर से घर जाते हैं लोग 

अपनी दुनिया से भी आगे कोई दुनिया है ज़रूर 
वर्ना मर जाने पे दुनिया से किधर जाते हैं लोग 

हाथ  जब  कोई  नहीं  उठता बुझाने  के  लिए
देख कर जलता हुआ घर क्यूँ ठहर जाते हैं लोग

हर "नफ़स" मर मर के जीते हैं तुझे ऐ जिंदगी
और जीने की तमन्ना में ही मर जाते हैं लोग  

शब्दार्थ :
शिद्दत ए ग़म - दुख की अति, ग़ाज़ा- चेहरे पर मलने वाला पाउडर, 
रानाई - सुंदरता, मसअले - समस्याएँ, नफ़स 

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